वैसे तो कोई भी राजनितिक दल सूचना के अधिकार कानून को पसंद नही करता. अब तक के पहले सरकारों ने सूचना का अधिकार अधिनियम बदलने की कोशिश की थी, लेकिन इन प्रस्तावों को या तो वापस ले लिया गया था या रद्द कर दिया गया था.लेकीन सूचना का अधिकार अधिनियम से राजनीतिक दलों को बाहर करने का प्रस्ताव अभी भी प्रलंबित है.
नरेंद्र मोदी सरकार के प्रस्तावित संशोधन ने कार्यकर्ताओं के सबसे बुरे डर की पुष्टि की है। यह अब लगभग तय हैं कि मोदी सरकार ने प्रस्तावित संशोधन केंद्रीय और राज्य सूचना आयुक्तों की स्वायत्तता को खत्म करने के लिए तैयार किया है. संसद के मानसून सत्र में इन सुधारों पर फैसला किया जाएगा.
इस संशोधन के बारे मे सरकार कुछ भी बताने के लिए तैयार नही. सूचना के अधिकार कानून के तहत मांगी जाने के बाद भी सरकार जानकारी देने के लिए तैयार नही है! और न ही आम जनता की राय ली गई है.
लेकिन संसद सदस्यों के बीच प्रसारित सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, २०१८ से अब यह स्पष्ट हो गया है कि यह संशोधन् केंद्र और राज्यों में सूचना आयुक्तों की आजादी सुनिश्चित करनेवाले वैधानिक सुरक्षा उपायों को हटाने का प्रयास करता है।
वर्तमान में, केंद्र और राज्यों दोनों में सूचना आयुक्तों के वेतन और कार्यकाल संवैधानिक रूप से संरक्षित हैं और केंद्र में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और चुनाव आयुक्तों और राज्यों में चुनाव आयुक्तों के समान हैं।
विधेयक में कहा गया है कि केंद्र और राज्यों में सूचना आयुक्तों के वेतन और कार्यकाल केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित किए जाएंगे। यह बताता है कि केंद्रीय और राज्य सूचना आयोग के वेतन,सेवाशर्तें और कार्य चुनाव आयोग के वेतन,सेवाशर्तें और कार्यों से बिल्कुल अलग हैं. इसलिए दर्जा और सेवा शर्तों को तदनुसार तर्कसंगत बनाने की जरूरत है.
संशोधन विधेयक के उद्देश्यों के मुताबिक, "केंद्रीय व राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की सेवा के वेतन, भत्ते और अन्य नियम और शर्तें है केंद्र सरकार निर्धारित करेगी"
यह भी बताया जा रहा है कि केंद्र और राज्यों दोनों में सूचना आयुक्त, "पांच साल की बजाय केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित अवधि के लिए पद धारण करेंगे".
वर्तमान मे केन्द्रीय और राज्य सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन सांविधिक रूप से संरक्षित हैं। ऐसा लगता है की केंद्र सरकार यह फैसला करने की शक्ती खूद को देकर सूचना आयुक्तों की स्वायत्तता को पूरी तरह से नष्ट करना चाहता है.
कांग्रेस, वामपंथी दलों और अन्य विपक्षी दलों का कहना है कि वे विधेयक का विरोध करेंगे. लेकीन आम जनता को यह नही भूलना चाहिये की जब राजनितीक पार्टीयों को सूचना के अधिकार के दायरे मे लाने की बात चल रही थी तब सारी पार्टीयोंने मिलकर उसका विरोध किया था.
इसलिए अब आम जनता को ही इस संशोधन का विरोध करने के लिए आगे आना चाहिए.
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